“संविधान: व्यक्तिगत गरिमा और अधिकारों का संरक्षक”

krishna bhatt

“संविधान वह आधार है जो न केवल हमारे लोकतांत्रिक ढांचे को मजबूती प्रदान करता है, बल्कि प्रत्येक नागरिक की व्यक्तिगत गरिमा और अधिकारों की सुरक्षा का वचन भी देता है। यह मानव गरिमा को सर्वोच्च मानकर समाज में समानता, स्वतंत्रता और न्याय को स्थापित करने का मार्गदर्शक सिद्धांत है।”

सुप्रीम कोर्ट और व्यक्तिगत गरिमा की संवैधानिक व्याख्या

सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फैसलों में अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार और व्यक्तिगत गरिमा के महत्व को विशेष रूप से रेखांकित किया है। इन व्याख्याओं ने भारतीय संविधान में निहित मूल्यों और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को संरक्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

मुख्य चिंताएं: सामुदायिक पहचान बनाम व्यक्तिगत स्वतंत्रता

1. व्यक्तिगत अभिव्यक्ति पर बाधा

सामुदायिक पहचान, चाहे वह जाति, धर्म, या राष्ट्रीयता पर आधारित हो, अक्सर व्यक्तिगत स्वतंत्रता और स्वायत्तता को सीमित करती है।

2. यूनिकता की अनदेखी

व्यक्ति को केवल सामुदायिक पहचान तक सीमित कर देना, उनकी विशिष्टता और व्यक्तिगत मूल्यों को नजरअंदाज करता है।

3. श्रेणीकरण की समस्या

व्यक्तियों का मूल्यांकन उनकी क्षमताओं और व्यक्तित्व की बजाय सामुदायिक पहचान के आधार पर किया जाता है, जो उनके विकास में बाधा डालता है।

भारतीय संविधान: व्यक्तिगत गरिमा का संरक्षक

1. व्यक्तिगत अधिकारों का संरक्षण

भारतीय संविधान के भाग III में निहित मौलिक अधिकार सभी नागरिकों की गरिमा सुनिश्चित करते हैं।

  • अनुच्छेद 14: समानता का अधिकार।
  • अनुच्छेद 19-22: स्वतंत्रता के अधिकार।
  • अनुच्छेद 21: जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार।

सुप्रीम कोर्ट ने मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978) मामले में अनुच्छेद 21 का दायरा बढ़ाते हुए कहा कि किसी भी कानून को, जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता को प्रभावित करता है, निष्पक्षता और न्याय की कसौटी पर खरा उतरना चाहिए।

2. राजनीतिक समानता
  • अनुच्छेद 326: सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार सभी नागरिकों को लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में समान भागीदारी का अधिकार देता है।
  • यह नागरिकों की राजनीतिक गरिमा और समावेशन सुनिश्चित करता है।
3. संस्थागत संतुलन

संविधान ने शक्ति के दुरुपयोग को रोकने और संस्थागत नियंत्रण के लिए एक मजबूत ढांचा प्रदान किया है।

व्यक्तिगत गरिमा को प्रभावित करने वाले सामाजिक और प्रणालीगत मुद्दे

1. सामुदायिक पहचान बनाम व्यक्तिगत अधिकार

सामूहिक पहचान, जैसे जाति और धर्म, यदि व्यक्तिगत अधिकारों से ऊपर रखी जाती हैं, तो यह भेदभाव और हाशिए पर रखे जाने को बढ़ावा देती है।

2. सामाजिक विश्वास की कमी

नागरिकों के बीच अविश्वास संवैधानिक मूल्यों को अपनाने में बाधा डालता है।

3. धन और शक्ति का केंद्रीकरण

लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में धन और शक्ति का असमान वितरण व्यक्तिगत अधिकारों को कमजोर कर सकता है।

संविधान और बदलता कानूनी ढांचा

1. मूल संरचना सिद्धांत

केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) मामले में स्थापित सिद्धांत ने संविधान के महत्वपूर्ण मूल्यों, जैसे गरिमा, को संरक्षित किया।

2. लोकतांत्रिक संवाद और सुधार

संविधान न्याय और समानता पर संवाद और बदलाव की अनुमति देता है।

  • उदाहरण:
    • ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 2019: ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के अधिकार और गरिमा को मान्यता।
    • 103वां संविधान संशोधन (2019): आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (EWS) को आरक्षण का प्रावधान।

निष्कर्ष

भारतीय संविधान और न्यायपालिका व्यक्तिगत गरिमा और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए निरंतर प्रयासरत हैं। सामुदायिक पहचान और व्यक्तिगत अधिकारों के बीच संतुलन बनाए रखना हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों की आधारशिला है।

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